कहानी कहने की दुनिया में महिलाओं को अक्सर या तो देवी बना दिया गया या फिर भूत, प्रेरणा या बलिदान की मूर्तियाँ। लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जहां महिलाएं सिर्फ एक किरदार नहीं होतीं, बल्कि खुद पूरी कहानी होती हैं। ये किताबें महिलाओं की भावनाओं, संघर्षों, सपनों और विजयगाथाओं को गहराई से दर्शाती हैं। इतिहास, पौराणिकता या समकालीनता के माध्यम से यह साहित्य स्त्री अनुभवों की एक समृद्ध परतें खोलता है। आइए जानें ऐसी 5 किताबों के बारे में, जहां महिला किरदार मंच के कोने में नहीं, बल्कि बिल्कुल मध्य में खड़ी हैं – अपनी कहानी की स्याही से सजी नायिका बनकर।
1. शिलप्पदिकारम् – इलंगो अडिगल
तमिल भाषा की यह महान काव्य कृति महाभारत की तरह सांस्कृतिक धरोहर मानी जाती है। ‘शिलप्पदिकारम्’ यानी ‘कलाई की पायल की कथा’ में नायिका कन्नगी अपने प्रेम, त्याग और न्यायप्रियता की प्रतीक बनकर उभरती है। अपने पति कोवालन के द्वारा धोखा खाने के बावजूद, वह उसका साथ नहीं छोड़ती। लेकिन जब निर्दोष कोवालन को चोरी के झूठे आरोप में मार दिया जाता है, तब कन्नगी अन्याय के खिलाफ विद्रोह करती है। क्रोध में वह अपनी छाती काटकर राजा और पूरे शहर को शाप देती है।
यह कहानी कई फिल्मों और धारावाहिकों में दिखाई गई है, जैसे 1942 की कन्नगी, 1964 की पूमपुहार और दूरदर्शन का चर्चित कार्यक्रम भारत एक खोज।
2. याज्ञसेनी – प्रतिभा राय
ओडिया भाषा में लिखी गई यह पुस्तक द्रौपदी की कथा को स्त्री दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। महाभारत की जानी-पहचानी कहानी को लेखक ने द्रौपदी के कृष्ण को लिखे एक काल्पनिक पत्र के रूप में ढाला है। वह अग्नि से उत्पन्न हुई स्त्री, जिसे पांच पतियों में बांट दिया गया, और फिर जुए में दांव पर लगा दिया गया। उसकी पीड़ा यहीं खत्म नहीं होती – महाभारत के युद्ध में अपने सभी पुत्रों को खोने का दुख भी उसी के हिस्से आता है। यह किताब पुरुष दृष्टिकोण से कही गई कहानियों को पलट कर देखना सिखाती है।
3. गर्ल्स बर्न ब्राइटर – शोभा राव
“अगर प्रेम भूख नहीं है, तो और क्या है?” – यह सवाल पूछती है यह मार्मिक उपन्यास, जो आंध्र प्रदेश की दो किशोरियों, पूर्णिमा और सविता की दोस्ती और संघर्ष की कहानी है। गरीबी, उत्पीड़न, मानव तस्करी और बिछोह के बावजूद, वे एक-दूसरे की तलाश कभी नहीं छोड़तीं। यह उपन्यास एक सादी सी दही-चावल की थाली में भी सुकून ढूंढ लेने वाली स्त्री आत्मा की सुंदरता को उजागर करता है।
दोनों पात्रों के दृष्टिकोण से कही गई यह कहानी दर्दनाक होते हुए भी आशावादी है – जैसे अंधेरे सुरंग के अंत में एक छोटा-सा दीपक।
4. अग्निसाक्षी – ललितांबिका अंथर्जनम
“मैं किसी एक जाति, धर्म या समाज की प्रतिनिधि नहीं हूं। मैं उन तमाम औरतों की प्रतिनिधि हूं जो सदियों से अत्याचार सहती आई हैं।”
मलयालम भाषा में लिखे गए इस उपन्यास में, केरला की सामाजिक परंपराओं से जूझती एक ब्राह्मण महिला थन्कम की कहानी है। यह विद्रोह तलवार से नहीं, बल्कि फुसफुसाहटों से शुरू होता है। थन्कम न तो प्यार की तलाश में है और न ही सांसारिक सुखों की। वह आत्मा की मुक्ति चाहती है। यह एक धीमी आग है, जो एकांत विद्रोह के रूप में जलती है।
इस पर आधारित एक फिल्म भी 1999 में आई थी – अग्निसाक्षी।
5. द लास्ट क्वीन – चित्रा बनर्जी दिवाकरुनी
“यश – यह अफीम से भी अधिक नशे की चीज़ है।”
चित्रा बनर्जी का यह ऐतिहासिक उपन्यास पंजाब की अंतिम रानी – महारानी जिंदन कौर की अनसुनी कहानी को सामने लाता है। साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर रानी बनने वाली जिंदन, पति महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों से लोहा लेती है। उपन्यास में जिंदन को एक वीरांगना नहीं, एक इंसान के रूप में दिखाया गया है – एक माँ, एक प्रेमिका, एक नेता, और एक महिला जो चुप नहीं रहती।
“अगर जिंदन को कुछ चाहिए, तो वह उसे पा लेती है।” – यह पंक्तियाँ बताती हैं कि रानी जिंदन इतिहास की दीवारों में खो जाने वाली कोई आम स्त्री नहीं, बल्कि एक जिंदा आग थी।
निष्कर्ष:
ये पांच किताबें हमें याद दिलाती हैं कि महिलाओं की कहानियाँ सिर्फ कहानियाँ नहीं होतीं – वे आंदोलन होती हैं। इन पन्नों में दर्द है, साहस है, और सबसे बढ़कर – एक स्त्री की वह आवाज है जिसे अब कोई चुप नहीं कर सकता।